Wednesday, August 28, 2013

ओस


बल्रराम अग्रवाल
रात्रि की शीत का अभाव पाकर सूर्य समय से कुछ पहले ही संध्या के आंचल में छिप जाना चाहता था।शरीर के ताप को चीर देने वाली शीत ने हल्के अन्धकार में ही नगर के मकानों
के द्वार बंद कर दिये थे।धीरे-धीरे घोर अन्धकार नगर की गलियों में बिखर गया। चिंघाडती वायु शीत का सहयोग पाकर वृक्षों का सीना चीर देना चाहती थी।
सारा नगर उपयुक्त ताप से लिपटा सो रहा था ।नगर से दूर खेतों खलिहानों के बीच एक पुरानी झोपड़ी मे दीपक की लौ शीतलहर को न झेल पाने के कारण
कुछ समय काँपने के पश्चात लुप्त हो गई । खेत में कहीं दूर कई सियार एक साथ हूंके। फटे लिहाफ को कुछ और लपेट कर वृद्धा ने शीत को भूलने की कोशिश की ।
मेघों ने धीमी छिडका -छिडकी करके शीतलहर को मित्रता का प्रमाण दिया । झोपड़ी की देहरी के समीप ही एक कोने में पड़ी बछिया ने सिर को पेट में कुछ और अधिक
घुसेड़ लिया ।
शीत को भुलाकर तेजी से भागते ठिगने युवक ने झोंपड़ी में प्रवेश किया । शीघ्रता  में चलने  के कारण वह बछिया से टकरा गया ।
--अम्बा ! बछिया की भिंची सी आवाज उभरी ।
--कौन ! वृद्धा ने यूं ही पूछा ।
--दादी माँ रात बिता लूँ !
--...............................
--हाय राम ! वृद्धा खाँसते खाँसते हकलाई ..... मुझे उठा .... । खांसी ने शेष शब्दों को कफ में मिलाकर धरती पर उलट दिया ।
--उठों नहीं ,तुम सो जाओ दादी माँ ! मैं बैठे ही रात गुजार लूँगा । युवक ने घुटनों को पेट में घुसेड़ कर उनको दोनों हाथों के घेरे में जकड़ लिया ।
ओस मे नहाई सूर्य की भोर किरणों ने झोंपड़ी की कपाटहीन देहरी को घेर लिया । ढेर से कफ को मक्खियों ने दिनभर का भोज्य समझ  अपना लिया ।
ठिगना युवक बछिया सहित रातों रात अंतर्ध्यान हो चुका था । ओस में सीले हुए तिनकोंवाली वृद्धा की झोंपड़ी को ,उस पर लदी फली -फूली बेल सहित ,गिरवी रखकर
सेठ ने कुछ रुपये दे दिये । पड़ोसियों ने वृद्धा के निर्जीव शरीर को अरथी पर जकड़ने का श्रेयअपने कंधों पर ले लिया । मोहक कहलाने वाली गुनगुनी किरणें
शीत -वायु को पीठ पर टिकाकर श्मशान को एक और आगमन का संदेश सुना आई । ( छोटी -बड़ी बातें 1978  सम्पादक-महावीर प्रसाद जैन/जगदीश कश्यप )

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