Thursday, June 18, 2020

छोटी कथाओं की बड़ी बात 11


डंडा

अनिल शूर आज़ाद


“आज फिर गलत लिखा! बेवकूफ कहीं का !चल बीस बार इसे अपनी कापी में लिख ...”              “नहीं लिखूँगा !” उसके स्वर की कठोरता देखकर मैं दंग रह गया.                                 मैंने पूछा, “क्यों नहीं लिखोगे ?”                                                         “पिताजी रोज दारू पीकर मारते हैं.कहते थे, अब एक महीना पूरा होने से पहले नयी कापी माँगी तो बहुत मारूँगा...” कहते हुए डंडा खाने के लिए हाथ आगे कर दिया.                                             मैं उसकी डबडबाई आँखों में झाँकता रहा. मेरा उठा हुआ हाथ जाने कब का नीचे ढरक गया था. 
    

विद्रोही

अनिल शूर आज़ाद

पार्क की बेंच पर बैठे एक सेठ, अपने पालतू 'टॉमी' को ब्रेड खिला रहे थे। पास ही गली का एक आवारा कुत्ता खड़ा दुम हिला रहा था।
वह खड़ा दुम हिलाता रहा, हिलाता रहा। पर..लम्बी प्रतीक्षा के बाद भी जब, कुछ मिलने की संभावना नहीं दिखी तो..एकाएक झपट्टा मारकर वह ब्रेड ले उड़ा। कयांउ-पयांउ करता टॉमी अपने मालिक के पीछे जा छिपा। सेठ अपनी उंगली थामे चिल्लाने लगा।
थोड़ी दूरी पर बैठे उसे, बहुत अच्छा लगा था यह सब देखना!


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