Sunday, July 27, 2008

एक युध्द यह भी



डाँ रामकुमार घोटड़
झीमली के पेटदर्द होने लगा, तेज, जानलेवा पेटदर्द। वो खड़ा रहने की शक्ति खो बैठी और जमीन पर पसर गयी। पिछ्ले तीन माह से वो गर्भ गिराने की बहुत कोशिश कर रही थी, न जाने कितने हथकण्डे अपनाये, लेकिन नाकाम रही थी ।
चार माह पहले वो एक दिन खेत मेँ काम कर रही थी, वो नहीं बल्कि उनकी बहुत सी पीढ़ियाँ हवेली वाले ठाकुर साहब के काम करते गुजर गयीं। ठाकुर साहब का कुंवर विचित्र सिहं न जाने कहाँ से आ धमका और काम में व्यस्त झीमली को दबोच लिया। वो असहाय, रोई- चिल्लाई और अपने शील की दुहाई दी। लेकिन उस राक्षस ने सब अनसुनी कर दी । रात को सोते समय अश्रुपूरित आँखों से झीमली ने अपने मर्द बदलू को सब कुछ बता दिया। बदलू ने उसे अपने आगोश मेँ लेकर धीर बंधाने की कोशिश की ।
पेटदर्द का एक और दौरा पड़ा और झीमली तड़पने लगी। "तेरी यह मजाल…? पेट से आवाज आयी, मुझसे हाथापाई करता है…? जानता नहीं तू, मैं ठाकुर विचित्र सिंह का अंश हूँ…" दोनों भ्रूण एक- दूसरे पर छींटाकशी करने लगे।
' ऐ, मिस्टर…"प्रतिक्रियात्मक आवाज आयी,"आजकल ठाकुर भी पहले जैसे ठाकुर नहीं रहे। कहाँ हैं बलिष्ठ भुजाएँ और शेर दिल, अब तो सिर्फ नशेड़ी, आलसी और निकम्मे जीव रह गये हैं । मुझे देखो मेँ चरित्रवान, ईमानदार और मेहनतकश बदलू मेघ का अँश हूँ। मेरी सेहत तुझसे अब भी बेहतर है। अब तो ठाकुर में थोथी धौंस और मूछों के सिवाय कुछ भी नहीं है …"
"नीच … तेरी हिम्मत कैसे हुई हमारे समाज पर अँगुली उठाने की, भला बुरा कहने की…?
"तुमने नीच कहा… नीच कहा मुझे… पापी, कमीने, हरामी कि औलाद…"और उसने अपने सहोदर पर भरपूर ठोकर का वार किया । विचित्र सिंह का अंश लुढ़कता हुआ जमीन पर आ गिरा ।
झीमली का दर्द जाता रहा और उसे यूँ लगा मानो नया जीवन मिला हो।

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