Monday, June 30, 2014

बिन तले के जूते

बिन तले के जूते

सुखबीर विश्वकर्मा

हमेशा से यही होता था गांव में कभी कोई मौत होती या खुशी का मौका होता तो
उन्हें जरूर बुलाया जाता वह खुद न जाकर चमरौंधे जूतों का एक जोडा भेज देते
जो उनके शामिल होने का प्रतीक था

वे सैकडों बीघा जमीन के मालिक थे। गांव का एक हिस्सा उनकी जमीन जोत-बो कर
पलता था।उनकी किलेनुमा आलीशान हवेली में हर वक्त मोटे-तगडे नौकर मौजूद रहते।
भला किसमें हिम्मत थी कि उनकी हरकत के खिलाफ़ मुंह खोल सकता।

अचानक एक दिन उनकी मां मर गई।परम्परा के मुताबिक गांव में खबर पहुंचा दी गयी
कि हरेक घर से एक-एक आदमी को शवयात्रा में शामिल होना है। जबाब मिला आयेंगे

अर्थी बनकर तैयार हो गई लेकिन एक भी आदमी वहां नहीं पहुंचा । वे हैरान थे।
झल्लाकर वे नौकरों पर बरसने लगे।

तभी दो बैलगाडियां हवेली की तरफ़ आती दिखाई पडी । वे चादरों से ढकी थी । पास
आने पर उन्होंने गाडीवालों से पूछा,"लोग कहां है ? और ये क्या तमाशा है ?

गाडीवान बगैर कुछ कहे वापस लौट गये ।इधर उन्होंने आगे बढकर बैलग़ाडियों पर से
चादरें हटायी ।वह ठगे रह गये । ग़ाडियों में बिन तलों के वही जूते भरे थे जो उन्होंने
समय-समय पर गांव वालों के यहां भिजवाये थे ।

("तनीहुई मुट्ठियां" सम्पादक मधुदीप/ मधुकांत     1980)

6 comments:

Anonymous said...

सामंतवाद के विरोध में खड़ी एक बेहतरीन लघुकथा। अफसोस यह है कि इतनी बेहतरीन लघुकथाएं देने वाले कथाकार आखिर चले कहाँ गये?

उमेश महादोषी said...

अच्छी लघुकथा है।

प्रदीप कांत said...

शानदार
यही प्रतिरोध चाहिये

प्रदीप कांत said...

शानदार
यही प्रतिरोध चाहिये

BLOGPRAHARI said...

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सुधाकल्प said...

यथोचित,नहले पर दहला