Saturday, July 3, 2021

  

शर्त

 

सुबह :

 

पन्द्रह हजार दे रहे हैं।”                 

 

शर्त क्या है?” साथी ने जानना चाहा।

 

यही कि मैं केस वापस ले लूँ और इस्तीफा देकर हमेशा के लिये यहाँ से दफा हो जाऊँ।”        

 

ऐसा क्यों?” उसने उत्सुकतावश पूछा।

क्योंकि जंगी मजदूर उनकी दावतें हराम कर देते हैं।

 

शाम:

 

आई हुई लक्ष्मी को ठुकरा रहा है।ऐसा बेवकूफ कहीं मिलेगा?”

 

उसे ढूँढना नहीं पड़ेगा।बदकिस्मती से वह आपके घर में है।”     

वे ताकतवर हैं।तुम कितनी किलेबन्दी तोड़ोगे?” पिताजी समझाने केस्वर में बोले।

मुझे टूटना मंजूर है।” 

तुम्हारे बच्चे भूखों मरेंगे, भीख माँगेंगे।”    

जहाँ करोड़ों भूखे मर रहे हैं, वहाँ दो-चार और सही।”            

तुमने सबका ठेका ले रक्खा है!पिताजी ने तैश में आकर कहा।

मेरी अपने कौम के प्रति जिम्मेदारी है।पूरी मानव जाति की मुक्ति का सवाल है।” 

 

भाषण मत झाड़ो!

 

यही सचाई है, यही आदर्श है।”   

तो भाड़ में जाओ।मुझे मुँह मत दिखाओ।

 

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तुम्हारे लिए

 

एक जंगली सूअर अपने दाँतों की दराँती को एक पेड़ से तेज कर रहा था। खरगोश बड़े असमंजस में पड़ गया। उसने पूछा, “आप तो अहिंसा के उपदेश देते हो, फिर इन दरातियों को क्यों तेज कर रहे हो?”

वह मुस्कराया, फिर तेज दराँतियों को दिखाकर बोला, “ये दुश्मन के लिए हैं।

कौन दुश्मन?” खरगोश ने पूछा। 

बाहरी और भीतरी। भीतरी दुश्मन ज्यादा खतरनाक होता है, विभीषण की तरह सत्ता हड़प लेता है।

मगर हिंसा का जबाब हिंसा नहीं है।उसने सख्त आवाज में कहा।

बिलकुल ठीक कहते हो, मेरे भाई। तुम्हारे लिए उचित ही है कि तुम गोली कांडों का जबाब प्रदर्शन और हड़ताल से दो। लोकतंत्र तुमसे यही अपेक्षा रखता है। मगर मुझे लग रहा है, तुम धैर्य खो रहे हो, इसलिए मैं अभी से तैयारियों में जुटा हूँ।और वह अपनी दराँतियों को तेज करने लगा।

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फूली

 

पौ फट रही थी।       

फूली माँचे से उठी और दालान में आकर गाय, भैंस का गोबर करने लगी। गोबर करने के बाद बाँटा चूल्हे पर चढ़ाना था। दूध दोहना था। दिन उगते तो मक्खियाँ तंग करने लगती है।

फूली का आदमी भानिया  पूरा भगत है। सुबह पेली उठकर वीर बावजी का धूप करता, आरती उतारता। अक्सर आरती उतारते-उतारते उसे वीर बावजी का भावआने लगता। पूरा शरीर काँपने लगता, धूजता और बड़बड़ाता।

उस  दिन भी भानिया के शरीर में वीर बावजी आए तो फूली दालान से ही चिल्लायी, “सुबह पैली काम के टैम काँई मांड्यो है। हे वीरजी! मैं थारा हाथ जोड़ूँ क्यूँ म्हारे पीछे लागो हों!

भानिया का भाव और तेजी पकड़ने लगा। शरीर बुरी तरह काँपने लगा। गरदन तो ऐसे घूम रही थी जैसे कील पर रखी हो।

वह देखते-देखते दुखी हो गई थी यह सब। भाव उतरने के बाद उसका शरीर दुखता ओर वह खेत  में खाट पर पड़ा रहता था। फूली से कहता, “जरा दबा दे। आज तो वीर जी ऐसे पड़में आये कि हाड़-हाड़ दुख रहा है

घर में खटे तो फूली, और खेत में जुते तो फूली। कई बार फूली आसुँओं  सनी आँखें  लेकर वीरजी के मंदिर में गई। खूब हाथ जोडे़, पाँव पड़ी मगर भानिया में कोई फर्क नहीं पड़ा।

फूली ने गाय की टाँगो में बंधी रस्सी खोली, दूध की चरी वहीं पटक औले में गयी और भानिया से बोली, “थारा हाथ जोडूवीरजी थे अठाउॅं पधारों। प्रार्थना बेअसर होते होते देख फूली गुस्से में आई। नारियल फोड़ा, चूल्हे से सुलगता कंडा लाई। उस पर धूप और नारियल डालाधुआँ उठते-उठते आग भभक उठी।

जायगा कि नहीं जायगा!कहती हुई वह आग को भानिया के मुँह तक ले गई।

आँच लगते ही उसकी मूँछों के बाल जल गए। मूँछें जलते ही भानिया होश  में आया और एकदम पीछे हटा मगर फूली तो आग और आगे कर रही थी।

भानिया बोला, “क्या कर रही है तू। मैं कोई भूत-प्रेत हूँ जो तू ऐसे भगा रही है। मैं तो देव हूँ, देव!

फूली बोली, “दीखता नहीं है! सुबह पैली काम तेरा वीरजी करेगा, बता। आज तो वीर जी को भगा के ही मानूँगी। मेरा घर बरबाद हो रहा है और मैं देखती रहूँ! भगत-भाव को भी कोई टैम व्है है।  कहते हुए आग को उसकी ओर बढ़ाया। अगर भानिया पीछे नहीं हटता तो आग उसके मुँह में घुस जाती।

भानिया एकदम पलटा, दालान में आया और चरी उठाकर दूध दूहने लगा।

 

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बघनखे

 

तुम कहते थे न कि खुदा गंजों को नाखून नहीं देता, वास्तव में ऐसा नहीं है। मेरा अनुभव सुनो!

आज जब मैं एयरकंडीशन रूम नम्बर एक में घुसा तो एक गंजा खल्लाट आदमी बड़ी-सी कुर्सी पर बैठा झूल रहा था। उसके पंजों के नाखून बघनखे से भी ज्यादा मजबूत, तीखे और कर्व्ड थे।

मैंने देखा कि वे नाखून दूसरों के माँस में गडे़ हैं। गंजी खोपडी चाँद-सी चमक रही थी। मुँह से लार टपक रही थी। दांतों में माँस के रेशे फँसे थे। शिकार करने का संतोष उसके चेहरे पर तैर रहा था।

मैं देखते ही बाहर आ गया क्योंकि मेरे पास कोई हथियार नहीं था।

 

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दालरोटी

 

तो तुम कुत्तों से प्यार करते हो! आदमी तुम्हें काटता है!

    “मुझे कुत्ते अच्छे लगते है।वह मुस्काया।

    “क्या कुत्ते आदमियों से बेहतर हैं?”

हाँ, जब तक उनके मुँह में हड्डी होती है तब तक वे न भौंकते हैं, न काटते है।

तुम्हारा मतलब है, हम तुम्हारी फेंकी गई हड्डियों को चूसते रहें।

अरे! तो बिगड़ते क्यों हो? हम कौनसा मुर्ग-मुसल्लम खा रहें है।फिर धीरे व मीठे शब्दों में बोला, ”लेकिन भाई! दालरोटी का जुगाड़ तो सभी को करना पड़ता है।मैनेजर ने उसे समझाते हुए कहा।

तो क्या उसके लिए कुत्ता बनना जरुरी है।

बौखलाते क्यों हो! मैंने यह तो नहीं कहा।

 

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कनविंस करने की बात

 

देखती हूँ, तुम मुझ से उखड़े-उखड़े रहते हो!

तुमसे? नहीं तो।

फिर बात क्या है? बताओ भी।

पिछला कांट्रेक्ट खतम हुए साल भर होने को आया है और अब कोई कोंट्रेक्ट हाथ में नहीं है।

मिल जायगा, इतना निराश क्यों होते हो। प्रोपर्टी से आमदनी हो ही जाती है।

नहीं इस बार कोंट्रेक्ट मुझे ही मिलना चाहिए। एक करोड़ का कोंट्रेक्ट है। यह कोंट्रेक्ट मिल गया तो मेरी हैसियत बढ़ जायगी।

बताओ, मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूँ।

आई केम्प लगाने के बारे में कल लायन्स क्लब की मीटिंग है, इनिशिएटिव लेकर चीफ इन्जीनियर से बात करना, उन्हें कनविंस करना कि यह कोंट्रेक्ट मुझे मिले। चन्दा देने का पूरा आश्वासन दे देना। एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर को तो मै संभाल लूँगा। मि.खण्डेलवाल भी इस ठेके पर जोर दे रहे हैं। ठेकेदारी में मेरे से दस साल जूनियर है, लेकिन अफसरों की मदद से कहाँ-से कहाँ पहुँच गया। अब वह गरीबों की मदद के लिये मेडिकल केम्प लगा रहा है, चाहे उसकी लेबर को एस्प्रो की गोली भी नहीं मिलती हो।

मैं कोशिश करुँगी, लेकिन तुम इतना परेशान क्यों होते हो?”

खण्डेलवाल मुझे मटियामेट करने पर तुला है, लेकिन मैं भी बच्चू को छोडूँगा नहीं। देखो, ये अखबार देखा है! एकदम सेंसेशनल! मैं पीछे नहीं पड़ता तो इस बात का पता ही नहीं लगता। मैंने तो पूरे फोटो और विडियो बना रखे हैं।

खबर यूँ थी, ठेकेदार खण्डेलवाल एंड कंपनी के मि.खण्डेलवाल और बड़े अफसर गेस्ट हॉउस में एक कॉल गर्ल के साथ संदिग्ध हालत में पाए गए। सुना जाता है कि ठेकेदार, ठेका प्राप्त करने के सिलसिले में एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर का मनोरंजन कर रहे थे।

बड़े ठेकेदार बनते है और करते हैं भडवागिरी!वह उत्तेजित हो बोली।

यह धंधा बढ़ाने की तरकीब है, पैसे तो सभी देते है। लेकिन जो अफसरों को बेडरूम में नंगा कर लेता है, उसकी तो पाँचों उँगलियाँ घी में है।” 

यानी तुम मुझे कॉल गर्ल वाला काम दे रहे हो?”

नहीं सुधा, जरा कनविंस करने की बात है! समझा करो एक करोड़ का ठेका है! जरा हँस-बोल लोगी तो तुम्हारा क्या घिस जायगा?”

कितने ठंडे दिल से बोल गया वह। सुधा की सिसकियाँ थमने का नाम नहीं ले रही थी।

 

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शाही सवारी

 

गुलाबी नगरी दुल्हन-सी सज रही थी। जगह-जगह बंदनवार लगे थे। जुलूस ऐरोड्रूम, विश्वविद्यालय से चौड़ा बाजार होता हुआ हवामहल तक जायगा। सब जगह जनसमुदाय उमड़ रहा था। गाँवों से आए लोग सड़कों पर ही सो गए थे। वे सुबह जल्दी उठकर शाही मेहमान का इंतजार करने लगे। अब शाही मेहमान आने ही वाले थे। हवा से उतर कर जमीन पर। लंबी-सी चमचमाती खुली कार, फूलों से सजी। जय-जयकार के उद्घोष के बीच वे हाथ जोड़े लोगों के अभिवादन का जबाब हाथ हिलाकर देंगे।

सड़कों पर पुलिस की जीपें। वायरलेस से लैस, रॉयल एन फील्ड मोटर-साइकिलों पर भारी-भरकम टोपधारी  पुलिस। सभी बड़ी तेजी से भाग रहे हैं। शाही मेहमान अभी हवाई-अड्डे पर है, मगर जीपें पूरे शहर में दौड़ रही है। सड़कें खाली हैं, जैसे दमकल के लिए पूरी सड़क साफ रखी जा रही हों। सड़कों के किनारे बल्लियाँ लगाकर फैंसिंग बना दी गई है। लोग जैसे बाड़ों में घुसेड दिए गए हों। शाही सवारी! करोड़-करोड़ जनों की आशाओं, विश्वासों का प्रतीक।

देखते-देखते आँखें दुःख गई। मैं बल्लियों से लगा आगे खड़ा था। सड़क पर जीप या मोटर-साईकिल की आवाज सुनते ही जनसागर में हलचल मच जाती। पीछे से उचक-उचककर देखनेवाले धक्का मार रहे थे। मैं पिचक रहा था।सारा दबाब झेल रहा था। इतने में जय-जयकार सुनाई दी। भीड़ बेसब्र हो उठी। लगभग रोमांचित। देखें हमारा प्रिय! हमारा आशापुन्ज! हवा में हाथ लहराने लगे। गगनभेदी जयघोष!

भीड़ का रेला मुझे दबाए जा रहा था। बल्लियाँ टूट गई। भीड़ सड़क पर उतर आई। सशस्त्र घुड़सवार बड़ी तेजी से लाठी चलाते हुए हमारी तरफ लपके। घुड़सवारों ने हमारे ऊपर घोड़े चढा दिए, जैसे घोड़े पहाड़ों पर चढ़ रहे हों। मैं घोड़े की टापों को सिर पर महसूस करता रहा और लाठी को पीठ पर।

सड़क फिर साफ हो गई थी। कारवाँ आगे बढ़ चुका था।

 

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आत्मकथ्य

 

तीस वर्षों से मैं बिजलीघरों के दैत्याकार टॉवरों को खड़ा करता आया हूँ। वे अब मुझे दबोचने लगे हैं। जिन शानदार अट्टालिकाओं के फर्श  पर पालिश करते हुए, अपने को कीचड़ में सना था, आज वही चमकता फर्श मुझ पर हॅंस रहा था। मैंने अपनी शारीरिक कमजोरी के बावजूद रक्तदान देकर, दूसरे को जीवन दिया। नतीजन, दूसरे ही दिन चक्कर खाकर चिमनी से गिर पड़ा।

फिर भी मैंने मशीनों को चलने से नहीं रोका। मैं उत्पादन बढ़ाने में लगा था। निर्माण के गीत गाने में लगा था। क्योंकि मैं समझता था-  यह निर्माण, यह उत्पादन मेरे अपने लिए है। ये मिलें मेरे लिए कपड़ा बना रही हैं। इन स्कूलों में मेरे बच्चे पढ़ने वाले हैं। इन अस्पतालों में मेरा इलाज होगा। ये कारखाने, दफ्तर, न्यायालय और बैंक मेरे बेहतर भविष्य के लिए आकाश  की ओर उठकर विस्तार पा रहे हैं। इसलिए मैंने मशीन से हाथ कटने, बिजली के शॅाक से मर जाने, आँखों की रोशनी खत्म हो जाने, दमा और टी.बी. लग जाने की परवाह नहीं की।

लेकिन क्या हुआ? सारा निर्माण मुझे आक्रान्त किए बैठा है। मुझे खुलेआम गाली दी जा रही है। मुझे कामचोर, निकम्मा और फोगटिया कहा जा रहा है। मुझे अराजकता और राष्ट्रदोह का मसीहा करार कर दिया गया है। जब निहित स्वार्थों की बात की जाती है; इशारा मेरी ही तरफ होता है।

राष्ट्र क्या है?

मैं अज्ञानी रहा हूँ। मैंने सोचा था, मेरे तमाम प्रश्नों के उत्तर वही देगा जिसने बार-बार मुझसे अपील की है।    

मैंने फिर भी गरीबी की शिकायत नहीं की थी, क्योंकि मैं जानता था, गरीबी मिटाना जादू नहीं है।

लेकिन आज, जब मेरे बच्चे अस्पताल से बाहर पड़े साँसे तोड़ रहे हैं। मेरी छॅंटनी के कारण मेरा परिवार दुःख से आक्रान्त है। कड़ाके की सर्दी और तपती लू आज भी मेरे बच्चों के प्राण ले लेती है। तब मुझे लगता है, तमाम निर्माण मेरी हत्या के षड्यंत्र में लगा है। आज जब यह महसूसकर मैंने करवट लेना आरम्भ किया है तो मेरे हाथ बाँध दिए जाते हैं, गले में कपड़ा ठूँस दिया जाता है।

और फिर मेरे श्रम को खरीदने से इन्कार कर; मेरे जीने के नैसर्गिक अधिकार को मुझसे छीन लिया जाता है। तब वातावरण में झुनझुने बजने की आवाज जोर-जोर से आने लगती है। लेकिन मैं जानता हूँ, झुनझुने मेरे प्रश्न के उत्तर नहीं हैं।

 

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दुमवाला आदमी

 

प्रबन्धक दूरबीन लगाकर टोह ले रहे थे। वह उनके फोकस में आ गया था। चार सौ बीस का केस, झूठी रसीद पर पेमेंट लेने का आरोप। उन्होंने पूरी तहकीकात कर सारी एविडेन्सेज इक्कठी कर लीं। किसी को कानों-कान खबर नहीं लगी।

उसका केस पुलिस को सौंप दिया गया। उसके होश फाख्ता हो गए। वारंट था। नौकरी तो  नौकरी, सात साल की सजा सामने थी। वह गिड़गिड़ाया। उन्होंने घृणा से मुँह फेर लिया, ’यू रास्कल!वह पाँवों में लोट गया। उन्होंने लात मार कर दूर फेंक दिया। वह रोने लगा, हिचकियाँ भर-भरकर। वे सोफे पर पड़े रोने का मजा लेते रहे। वह दया की भीख माँगने लगा।

करो नेतागिरी!

इडियट! दिमाग सातवें आसमान पर था।

ब्लडीफुल! अब जान गए अपनी हैसियत?”

वह उनकी पत्नियों के पास गया, कमर झुकाए-हाथ जोड़े, लाचारी बतलायी। वह एक बार नहीं, बार-बार गया। वह फिर गया, जब साहब और बीबी ड्राइंग रूम में बैठे थे। तब उसने गुलाम का पूरा अभिनय किया। बीबी दयालु थी। साहब ने कहा, “देखेंगे।

एक अर्से तक उसे ठोंक-बजाकर देख लिया। वह रॉकी की तरह पालतू बन गया था। जब साहब चाहते, पूँछ हिलाता, लार टपकाता, उछलता-कूदता और शरीफ आदमियों को काटने दौडता। साहब डाँटने के अन्दाज में उसे बुलाते और वह पूँछ हिलाकर उनके पाँव सूंघता, सहलाता। वे उसे फिर डाँट देते। वह दूर हटकर पिछले पाँवों पर बैठ जाता। पूँछ हिलाता, आदेश का इन्तजार करते हुए उनकी ओर टुकुर-टुकुर देखता, मगर दूसरे हाथ भी लगा देते तो उछल जाता।

ठीक है, केस विभाग वापस ले लेगा.वह खुश है कि उसे पालतू मान लिया गया है।अब तो सौ गुनाह भी माफ़ हैं वह स्वयं साहब की पूँछ बन गया है।

अब वह साथियों के बीच गुर्राने लगा है।

 

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औरत

 

वह एक औरत थी।

    मगर खाकी पगड़ी में लाल कलंगी लगानेवालों की निगाह में वह एक मादा थी। उनकी भाषा में कहें तो वह एक कुतिया थी। उसे वे गुंडों से बचा लाए थे। रक्षक दल के चार कुत्ते लार टपकाते, भेडिये की हिंस्त्र आँखें लिये झपटने वाले थे।

 

वह औरत थी। कम से कम वह अपने को औरत समझ रही थी। असहाय और भयभीत। गरीब और ओछी जात।

 

      फिर क्या था! कानून उनकी रखैल है। राजनीति उस रखैल के रखे गुंडे है।

 

वे खुलकर खेले।

 

उनके चहरे पर झड़ जाने का संतोष था।

 

 वह शोक-संताप में डूबी, नारी जीवन को कोस रही थी। घृणा से उसने थूक दिया, उनके चेहरों पर। वे मुस्काते हुए अपनी खाकी कमीज की बाँहों से थूक पोंछने लगे।

 

वह बदला लेने लगी, अपने आप से।अपना सिर दीवार पर दे मारा। खून की रेख बह चली और दीवार पर पहले बनी रेख से मिल गई।

वे आत्मज्ञान के क्षण थे।

 

उसने असहायता, लाचारगी, लज्जा और कलंक का खोल उतार कर फेंक दिया।

 

रायफल से निकले चाकू को घोंप दिया एक के सीने में, तीन भाग गए।

कहाँ जाओगे बच्चू!उसने दाँत पीस कर कहा।

 

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जनता जनार्दन

 

बरसाती नदी पर बाँध। ओवरसियर आए। ठेकेदार आए, ट्रेक्टरों और औजारों के साथ। मजदूरों के गीत हवा में लहरे। कभी-कभी इन्जीनियर चक्कर काट जाते। इज्जत और पैसा बनाकर चलते बने। नहरें निकली। पानी बाँटने के नाम पर गाँवों में आपसी झगड़े हुए। मेरे गाँव में नहर नहीं आई। जबकि नदी मेरे गाँव की है और बाँध बनवाने की पूरी कोशिश मेरे गाँव वालों ने की है इसलिए गाँव में जुलूस निकले, नारे लगे, विधायक आए, आश्वस्त किया और सरपंच के कान में मंत्र फूँककर चल दिए।

लोग सरपंच को साथ लेकर सरकारी अफसरों, इन्जीनियरों से मिलते रहे। आश्वासन मिला कि नहर हमारे गाँव भी आएगी, एक टेक्नीकल कमेटी गठित की गई।

मैंने गाँववासियों की सभा में कहा, ”मुख्य प्रश्न यह है कि इस गाँव के सब छोटे काश्तकारों को छोड़कर पास के गाँव के ठाकुरों को सारा पानी क्यों दिया गया? सौ चिपके पेटों को पालना या भरे पेट की तोंद निकालना, कौनसा समाजवाद है?” लोग एक दूसरे की ओर देखते हैं लेकिन डर उनके गले में आकर बैठ जाता है।

जमींदारों ने इन्जीनियर ओवरसियर को शाही मेहमान की तरह रखा। महफ़िल, शराब, गोश्त, और शिकार। कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार हमारे गाँव का लेवल ऊँचा था, अत: नहर नहीं आ सकती। चुनाव आया। कांग्रेस के उम्मीदवार ने घोषणा की, “राज कांग्रेस का है मैं जीत गया तो पानी आएगा। पहले यहाँ से स्वतन्त्र पार्टी का उम्मीदवार जीता था। उसने जमींदारों का फायदा किया।”  वह जीत गया, फूलों से लद गया। लोगों ने राहत की साँस ली।

आप लोग जानते हैं, आजकल जमाना कैसा है, भाई हमें तो काम करवाना है। दस-पाँच मुँह पर मारने ही पड़ते हैं।लोगों ने चन्दा किया। हजारों रुपया इकठ्ठा हुआ। पंच और सरपंच साथ थे। संघर्ष का रास्ता लम्बा रास्ता है और कठिनाइयों से भरा है, फिर जरुरी नहीं की सफलता मिल ही जाए। यह अव्यवहारिक और कोरा आदर्शवादी है।

भींचीं मुट्ठियाँ उठते हुए हाथ, उफनते हुए जोश; सबको शान्त कर दिया, इस शॉर्टकट ने।

मै चिल्लाया, यह भ्रष्टाचारी है, पैसा हड़पना चाहता है। लोग चिल्लाए, “तुम्हें आम खाने से मतलब है कि पेड़ गिनने से। एक तो आदमी काम करवा रहा है, तुम इसे गालियाँ दे रहे हो। अपना मुँह बन्द रखो नहीं तो ....

मैं अपना मुँह बन्द कर लेता हूँ, क्योंकि जनता जनार्दन है।

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टेक्टिकल लाइन

 

आप तो व्यावसायिक-पत्रिकाओं के विरोधी हैं?” पत्रिका के सह-सम्पादक ने, जो पहले साहित्य में व्यावसायिकता के विरोधी थे, मुझसे पूछा।

जी हाँ, मैं साहित्य में व्यावसायिकता का विरोधी हूँ।मैंने कहा।

तो फिर हमारी पत्रिका के विशेष प्रतिनिधि क्यों बनना चाहते हैं? क्या इस तरह आप हमारे खतरनाक गिरोह में शामिल नहीं हो जाएँगे?” सम्पादक महोदय ने सीधे प्रश्न किया।

व्यावसायिक पत्रिका में आने का मतलब यह नहीं है कि आप मेरे विरोध का हक़ छीन लेंगे!’’

फिर भी कुछ तो समझौता करना ही पड़ेगा।सह-सम्पादक ने कहा।

समाजवाद लाने में जनतांत्रिक संस्थाओं की अनुपयोगिता के बावजूद हम संसद का एक मंच के रूप में उपयोग करते हैं।

यानी आप समझौता कर लेंगे।सम्पादक महोदय ने जानना चाहा।

यह समझौता नहीं, टेक्टिकल लाइन है।

मेरा यह कहना था कि सम्पादक महोदय ने एक जोर का ठहाका लगाया। सहसम्पादक के कंधे पर धौल जमाकर कहने लगे, ”क्यों, तुमने भी तो इंटरव्यू में यही कहा था न! अच्छा इन्हें भी नियुक्त कर लो।

 

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ओवरटाइम

 

फैक्टरी में शटडाउन चल रहा था। ओवरटाइम जोरों पर था। सोलह घंटे से कम का सवाल ही नहीं। महीने में चार अट्ठे मार लेना तो मामूली बात है।

यार टण्डन! ओवरटाइम न हो तो हाथ बँध जाता है।बस की लाइन में खड़े एक मेकेनिक ने दूसरे से कहा।

चलो चलो, बस आ गई।दूसरे ने पहले की बात को अनसुनी कर कहा। वे दोनों चूहे की तरह भीड़ में से निकलकर बस में बैठ गए। टिकट लेते-लेते ही जनरल अस्पताल का स्टॉप आ गया। इतने में वर्मा बस में चढ़ा।

खैरियत तो है! सुबह-सुबह यहाँ कैसे?” पहलेवाले मेकेनिक ने पूछा।

वो तोमर है न वर्कशॉप में ....”      

हाँ- हाँपहलेवाले ने जिज्ञासा प्रकट की।

उसके पिताजी की डैथ हो गई है। कुछ दिनों से बीमार थे। साहब से बोल देना, मैं आज नहीं आ सकूँगा।”              

ओह!उनके मुँह से अचानक ही दुखभरी आह निकली। फिर वे गैलेरी में खड़ी भीड़ के रेले के साथ आगे चलकर सीट पर बैठ गए।

यार बावेजा! पूरा हफ्ता खराब हो जायगा। दो सौ रुपये का चूना लग जायगा।दूसरे मेकेनिक ने कहा।

तो कोई जरुरी है दाह-संस्कार में जाना। रात को दोनों उसके घर बैठ आएँगे। कह देंगे, जरुरी काम था साहब ने छुट्टी नहीं दी।”       

वर्मा सुन रहा था। उसकी नसें तन गई। कान लाल हो गए। होंठों ही होठों में बुदबुदाया - साले हरामजादे!

 

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पिता, पति और पत्नी

 

दरवाजे के पास पहुँचते ही पिता ने एक भरपूर लात दरवाजे पर मारी। दरवाजा चरमराकर खुल गया। दरवाजा खुलते ही घर में दहशत भर गई। अन्दर के लोग जो जहाँ थे, वहीं पथरा गए।

पिता का सिर नीचे की ओर लटक रहा था। बाल बिखरे और उलझे थे। पाँव चलते वक्त लड़खड़ा रहे थे। हाथ ढीले होकर इधर-उधर झूल रहे थे। मुँह में ही कुछ बड़बड़ा रहे थे। मुँह से दुर्गन्ध का भभूका उठा और बेटाबेटी की नाक में घुस गया। दहशत भरे बच्चे घबराने लगे।

पिता चूल्हे के पास गए, तवे पर से ढक्कन हटाया, रोटी नहीं देखकर उसने गुस्से में ढक्कन को फेंका। झन्न की आवाज हुई। बोले रांड पूरा दिन हो गया, तुझसे दो रोटी नहीं बनी।उसने चूल्हे के पास पड़ी लकड़ी को उठाया और फेंकने के लिये उद्यत हुआ मगर पाँव आगे नहीं बढ़ पाए।

बापू!मैंने हिम्मत की।

अबे बापू की औलाद, कहाँ गई रांड?” मेरे अन्दर जैसे कुछ चटख गया, टुकड़े-टुकड़े हो गया।

रांड होगी तेरी, मेरी तो माँ है।मेरा गुस्सा उफान खा रहा था।

एकाएक उनका सिर ऊपर उठा। आँखें लाल सुर्ख थी, अब वे ज्यादा फ़ैल गई थी, “साले! तेरे भी पर निकल आए हैं, देखता हूँ।उन्होंने फुर्ती से लकड़ी का वह टुकड़ा मेरी ओर फेंका। मैंने बचने की कोशिश तो की मगर पाँव में लग ही गया। मेरी बहन चीखने लगी जोरजोर से।

जेहन में आग भड़क उठी। तभी देखा, दरवाजे पर माँ खड़ी है।

रात में कहाँ गई थी?”

माँ कुछ नहीं बोली, ओढ़णे में बंधी पोटली को खोला, परात में आटा डाला। लोटा लेकर मटके से पानी लेने लगी।

तभी बाप पीछे से गरजा, “बोलेगी क्यों! यारों के साथ मौज मस्ती जो करने गई थी।

माँ ने भरा लोटा उसके मुँह पर मारा और बोली, “हरामी, तेरा पेट भरने के लिए दिनभर मजूरी करके, आटा लाई हूँ और तू आँय-बाँय बक रहा है।”  पिता इस एकाएक आक्रमण से सकपका गए। वे धम्म से नीचे  बैठ गए।

दिनभर हरामगिरी करता है और दो घूँट पीकर औरत को मर्दानगी दिखाता है!माँ ने हम दोनों को बाँहों में समेट लिया।

माँ! यह बाप है, देखो।और मैंने अपना घाव दिखा दिया। माँ मुझे गोद में भरकर पुचकारने लगी।

माँ, चलो अपना दूसरा घर बसा लें।” 

नहीं बेटा! तू तो अलग हो सकता है पर मेरे करम इससे ही बंधे है।

 

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