Saturday, July 3, 2021

 

दोजख़

 

आँखों में शीशे की किरचें चुभ रही थीं। बीच बाजार में खून से लथपथ लाश पड़ी थीबिल्कुल अकेली। जिस भीड़ में वह था, अब वह गलियोंगलियारों में भागती हुई चायघरों में घुस गई थी। सिर्फ़ वह एक साक्षी था, जिसने पूरी घटना को घटते देखा था। उसने आँखें बन्द कर ली, नहीं देखा जाता। उसने ईश्वर से दुआ माँगी : प्रभु! ये आँखें वापस ले लो और उस दिन वह अन्धा हों गया।

दृश्य बेमानी हो गए थे, लेकिन अब दूसरी इंद्रियाँ ज्यादा संवेदनशील हो गई थीं। जब वह लाठी के सहारे चलता तो आवाजों से ही सबकुछ पता लगा लेता। अब उसे आवाजें परेशान करने लगींमारो, काटो, मादर...यह विधर्मी है! इतने में ट्रक से कुचलता हुआ साइकिलसवार किं...किं ...चच....बेचारा!

उसने फिर ईश्वर से दुआ माँगी और वह बहरा हो गया।

इस तरह वह अन्धा, बहरा और गूँगा हो गया। यहाँ तक कि अन्त में उसने ईश्वर से दुआ की कि उसके प्राण ही ले ले। ज्योंही वह यमराज के दरबार में उपस्थित हुआ, उसे दोजख़ की आग में झोंकने की आज्ञा दे दी गई। वह बौखलायायह कैसा न्याय है? न मैंने बुरा देखा, न बुरा सुना, न बुरा कहा, फिर यह सजा! प्रभु, तुम तो दयानिधान हो!

मैंने तुम्हें न केवल जीवन दिया, बल्कि उसकी सब उपलब्धियों से परिपूर्ण किया। इसके उपरान्त भी तुम लगातार जीवन से भागते रहेदब्बू और कायर की तरह। मेरी रचनात्मक शक्ति का उपहास किया तुमने, इसकी यही सज़ा है!

और उसे पकड़कर दोजख़ की आग में झोंक दिया गया।

 

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मेह बरसे तो नेह बरसे

 

सासरे से आए कै दिन हो गए?” भूरी ने पौनी से पूछा।

दिन का क्या पूछो, पूरे दो महीने निकल गए हैं।पौनी ने भारी मन से नि:श्वास छोडते हुए कहा।

कोई लिवाने नहीं आया? बेनोजी नाराज है क्या?” उसने चिकोटी लेनी चाही।

वो क्या नाराज होंगे! नाराज तो भगवान हो गया है।कहते-कहते पौनी का चेहरा गंभीर हो गया। चाल धीमी पड़ गई।

वे उस रेले के साथ जा रही थी जो सिर पर तगारी रखे, काँधे पर कुदाल थामे, सरकार के खोले फेमिन पर जा रहा था। बाँध की पार पर मिट्टी डालकर उसकी चौड़ाई और ऊँचाई बढ़ानी थी। यही फेमिन का काम था। आसपास के गाँवों से मजदूरों का रेला उमड़ पड़ा था। ठेकेदारों की ट्रकें और अफसरों की जीपें दौड़ रही थी। रेगिस्तान में नखलिस्तान था, वह इलाका।

पीहर में कब तक कटेगी? भाई-भावज कब तक सोहेंगे (सहेंगे )!भूरी ने चिंतित स्वर में पूछा।

वह हँस दी, फीकी दार्शनिक हँसी।

सासरे वालों ने पीहर भेज दी, बाप के माथै। पण इहाँ मैं कौनसी किसी के माथै हूँ। म्हणे तो एठई काम करणों नै वठेई काम करणों।   

सो तो ठीक है पण ...भूरी कुछ कहना चाहती थी लेकिन उसे शब्द नहीं मिल रहे थे। पौनी अपने में जैसे खो गई। सोचने लागी- जरा सा काल क्या पड़ा मनख की नीत फिर गई। पण मनख बापड़ो काँई करे। जद भगवान फरज पो छोड्यो तो मनख री काँई बिसात।           

पौनी साल-दर-साल अकाल भुगतते-भुगतते काफी समझदार हो गई है। अब वह अपने भाग को नहीं कोसती। न दूसरों को दोष देतीहैं। केवल बारिश का पानी ही जीवन का संचार कर सकता है, मेह की बूँदें ही जीवन में बुलबुले बनकर फूटेंगी। वह सोचती है-अब तो मेह बरसे तो सगा सम्बन्ध फल-फूल सकें। मेह की ठंडी फुहार मन में नेह बरसा सके। नहीं तो तीज रा झूला नै गणगोर फीकी पड़ जावेला।   

 क्या सोच रही है?” भूरी बोली, जल्दी-जल्दी चल। हम बहुत पीछे रह गए हैं। देर हुई तो वो हरामी मैट फिर अपने गन्दे दाँत दिखाएगा।और वे तेजी से कदम आगे बढ़ाने लगीं।

 

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सही उपयोग

 

तेल, शक्कर, दाल और चावल की कीमतें हवाई जहाज की गति से बढ़ रही थी। गति थमते ही कपड़ा, सीमेंट, खाद, डीजल और केरोसिन की महँगाई का रोकेट छोड़ा जाता। राशन का हिसाब हेलिकोप्टर से गिराई खाद्य सामग्री के पैकेट जैसा था।

 

ऐसे माहौल में विधानसभा का उपचुनाव होना था। प्रत्याशी स्वयं मुख्यमंत्री थे। लोगों की तकदीर सिकन्दर थी। तमाम सरकारी मशीनरी लाव-लश्कर के साथ इस क्षेत्र की ओर उन्मुख हुई। स्कूलों के शिलान्यास हुए, सड़कें बनवाने के आदेश हुए। अस्पताल निर्माण के लिए टेंडर हुए, नलकूपों के लिए ऋण दिए गए। अकाल राहत के नाम पर लगान माफ़ी, जानवरों के चारे की व्यवस्था, लोगों के लिए अकाल राहत पर मजदूरी का प्रबन्ध, यानी पौराणिक आख्यानों में पढ़ा कल्पवृक्ष उनके सामने था।

 

पार्टी कोई कसर नहीं रखना चाहती थी। बच्चों को टॉफी और गुब्बारे, बड़ों को बीड़ियाँ। क्षेत्र के विकास के लिए नई-नई योजनाएँ। मगर महँगाई की मार कुछ ऐसी थी कि लोग सीधे खड़े नहीं हो पा रहे थे।

 

राजनेता उड़ती चिड़िया पहचानते है। महँगाई से लोगों को राहत देने के लिए आस-पास के जिलों के रसद अधिकारियों के नाम वायरलैस निर्देश भेजे गए कि सारी राशन सामग्री उपचुनाव क्षेत्र में भेजें।

 

एक रसद अधिकारी ने अपनी आमदनी हाथ से खिसकते देख खाद्य मंत्रालय को मैसेज भेजा, ”सर, इसमें जनता हमारी फजीहत कर देगी।

 

जनता की फिक्र हम पर छोड़ दो। तुम चीजों का सही उपयोग कब करना सीखोगे! इस वक्त राशन सामग्री का सही उपयोग उपचुनाव क्षेत्र है। वहाँ आसपास के सभी क्षेत्रों का राशन इकठ्ठा होगा और वोटरों में बाँटा जायगा। कुछ समझे !

जी समझ गया। राशन का सही उपयोग तो होना ही चाहिए।

 

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नाटक

 

हम पचास लोग थे हॉल में।

कितनी पोस्ट है?” पासवाले साथी ने जानना चाहा। "दोमैंने उत्तर दिया, “सलेक्शन मुश्किल है, फिर भी उम्मीद तो रहती ही है।    

उम्मीद तो पूरी होती है, अगर आप नहीं आते तो आप को बराबर लगता कि यार! गया होता तो जरूर सलेक्ट हो जाता। मैं तो भई, इसी वहम यानी फूल्स पैराडाइजको तोड़ने आया हूँ।पासवाले साथी ने हलके-फुल्के ढंग से कहा। मैं मुस्काया, “बात तो ठीक है।     

इतने लोगों का इंटरव्यू लेने में दो दिन लग जाएँगे, आखिर यूनिवर्सिटी का इंटरव्यू है!मैंने कहा। उसने ठहाका लगाया, “यार तुम भी घोंचू हों। अरे! तीन-चार मिनट बस। टालू मिक्सर दिया और रवाना किया।मैंने मन ही मन कहा -बकता है।  इतने में मेरा नाम पुकारा गया। मैं अंदर दाखिल  हुआ।    

तो आपने एम.ए. में सत्तर प्रतिशत अंक प्राप्त किये हैं। यूनिवर्सिटी में क्यों आना चाहते हैं?” जैसे यहाँ आना अपराध हो या ये मुँह और मसूर की  दालवाला भाव भी हो सकता है। 

प्रोफेशनल ग्रोथ के लिये।मैंने जबाब दिया। वे व्यंग्य से हँसने लगे।

गुर्नाल मिर्डल का नाम सुना है?”

हाँ, जिन्होंने एशियन ड्रामा लिखा है।   

वेरी गुड, यह ड्रामा सबसे पहले कहाँ प्ले किया गया?”

क्या?” मुझे सवाल अटपटा लगा।        

ये पूछ रहे हैं ये ड्रामा सबसे पहले कहाँ प्ले किया गया।

मैं चकराया। यह कैसा सवाल है! यह कोई साहित्यिक ड्रामा नहीं है। अर्थशास्त्र की किताब है।मैंने उत्तर ठोंका।     

वे अपने प्रश्न की सूझ पर हँसने लगे। लेकिन लगा, जैसे मजा हाथ से निकल गया हो। मुझे महज नाटक का पात्र बना दिया गया था; उनकी सहूलियत के लिये।

 अब आप जा सकते हैं।एक सीधा आदेश और मैं बाहर आ गया, बड़बड़ाया, ’सब नाटक है।     

 तभी तो मैं कहता हूँ कि नाटक में एन्ट्री बैकडोर से ही होती है।वह बाहर प्रतीक्षा कर रहा था।                                

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सूना  आकाश

 

अधेड उम्र का माँगिया जालोर की एक छोटी-सी ढाणी का निवासी था। वह अब कच्ची ईंटों के अपने टापरे में रहने का सुख भी नहीं देख सकेगा। ढोरों की देखभाल से घर में हंडिया दो वक्त चढ ही जाती थी। पर यकायक सब बिगड़ गया।

आकाश में सफेद, कुछ मटमैले बादल जरुर तेजी से घूमते देखे थे और गाँववाले ढोल बजाकर, हवन-पूजा कराकर, मनौती मानकर उन बादलों के पीछे भागे थे। लेकिन आकाश बिल्कुल साफ हो गया था। अब उनकी हिम्मत नहीं थी कि आकाश की ओर देखे, पर धरती की तरफ भी देखना मुश्किल था।

फिर वे मवेशियों सहित, और लोगों के साथ चल दिए थे, पानी और चारे की तलाश में। एक अटूट कड़ी इंसान और जानवर की, अजमेर से कोटा तक, फिर रावतभाटा से होकर मालवे में प्रवेश करती। यह तलाश आसान न थी।

रास्ते में माँगिया के छोटे पुत्र की मृत्यु हो चुकी थी। कमजोर व्यक्ति को बीमारी बुरी तरह जकड़ लेती है। और वे उसे अनजान जगह गाड़कर आगे चल दिए थे। जीवन कहीं रुकता है! आँसू करीब-करीब सूख गए थे। उनके होने-नहोने का कोई अर्थ भी नहीं रह पाया था। जब तक वह कोटा पहुँचा, ढोर के नाम पर उसके पास एक गाय बची थी। बाकी  कुछ मर गई और कुछ को पेट भरने के लिये बेच दिया। अन्तिम गाय भी कोटा में आकर बिक गई। अब मजदूरी के अलावा कोई रास्ता नहीं था।

वे काम की तलाश में कोटा शहर छान  रहे थे। कोटा एक औद्योगिक शहर में परिवर्तित हो रहा था। अत: मजदूरी मिलना मुश्किल नहीं था। लेकिन इन्हें काम देवे कौन? ये ढोर क्या काम करेंगे। वे निराश किसी कमठे के पास बैठे थे। माँगिया अपनी सूनी विस्फारित आँखों से ताक रहा था। उसकी सूनी विस्फारित आँखें कुछ देर के लिये झपकी थी, देखता है, एक ठेकेदार का एजेंट उसकी बेटी के साथ चुहल कर, कह रहा है काम पर आने के लिये और काम पर आने के लिये एडवांस भी दे रहा है।

क्या कहे माँगिया! उसकी आँखों में तो सूना आकाश तैर रहा था।

 

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कछुए

 

संबंधो का सौंदर्य सामाजिकता एवं नैतिकता पर निर्भर करता है, लेकिन उनकी ठोस नींव आर्थिक आधारों पर टिकी होती है। यह एहसास अनुभव के आधार पर परिपक्व होता गया। स्वार्थो को नैतिकता का जामा पहनाकर मुझ पर ओढ़ा दिया गया था। मैं उस लबादे से मुक्ति चाहता था। मगर वह मुझे और दबोच लेता।

सम्बन्धों के निर्वाह में, सामाजिक जिम्मेदारियों और नैतिक मान्यताओं को ढोने में मेरी समस्त शक्ति खप जाती है, फिर भी सम्बन्धों के फोडे़ रिसने लगे, क्योंकि अर्थोपार्जन की मेरी अपनी सीमाएँ थी और उनकी आकांक्षाएँ सीमाहीन।

मैंने कछुए की तरह अपने पॉंव अन्दर समेटने आरम्भ कर दिए। चारों तरफ चारदीवारी, जिसकी खिडकियॉं भी नहीं खुलती थी। नितान्त एकाकी जीवन! एकाकीपन की ऊब। झुँझलाहट। क्रोध की एक तीव्र अनुभूति, जो केवल लिखे हुए कागज फाड़ने तक सीमित है।

सुनसान सड़क पर रात गए घूमना। चौकन्ना बना देखा करता हूँ कि कहीं लोगों की ऑंखें मुझ पर न टिकी हों। लोग यह न समझें कि मैं अकेला हूँ। रात में भटके जल पक्षी की तरह, बेचारा!

मैं लोगों की सहानुभूति का पात्र नहीं बनना चाहता। मैं हमेशा डरा करता हूँ कि कहीं कोई सहृदय (?) व्यक्ति मेरे पास पहुँचकर मेरे अन्तरतम को छू न ले, क्योंकि मैं रोना नहीं चाहता।

 

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हक

 

पिता की सम्पति में अब पुत्रियों का भी वही हक है, जो पुत्रों का है। कानून ने अब स्त्री पुरुषों को बराबर का अधिकार दिया है।पति अपनी पत्नी को समझा रहा था।

पिताजी की सम्पति में जो तुम्हारा हिस्सा है, उसका दावा है यह।यह कहते हुए पति ने कोर्ट केस के पेपर्स पत्नी के सामने रख दिए। पत्नी सोच में पड़ गई।

क्या चाहते हो तुम?”

इस पर दस्तखत कर दो बस, बाकी मैं देख लूँगा।

हूँ, तो तुम देख लोगे! क्या देख लोगे?”

तुम बेकार में तैश में आ रही हो। तुम केवल अपना हक माँग रही हो।

दहेज में तुमने एक लाख रुपया लिया। माल लिया, सो अलग।जिसे तुमने निट्ठले बैठ कर हजम कर दिया।

सीमा! प्लीज, समझने की कोशिश करो। तुम तो केवल अपना हक.. 

हक! वाह ख़ूब! हक माँगना मैं तुमसे सीखूँगी, बताओ दहेज लेना तुम्हारा हक था?”

वो छोड़ो, पुरानी बात में क्या रखा है। दहेज तो रस्म है और समाज में अपनी इज्जत बनाए रखने के लिये हर कोई दहेज देता है।

मेरे पिता को लूटने की यह नई तरकीब है। मैं हरगिज दस्तखत नहीं करुँगी।और उसने कागज फाड़ कर फेंक दिए।

तुम बेकार ताव खा रही हो, जरा समझने कि कोशिश करो। आज हम अभावों से जूझ रहे हैं। अगर कुछ इन्तजाम नहीं करते तो निश्चित है, बहुत बुरे दिन देखने होंगे।

अभावों का आकाश खुलते ही सीमा के तेवर ढीले पड़ गए। वह समझौता करने पर तैयार हो गई। धीमे स्वर में बोली, “लेकिन इससे हमारे सम्बन्धों में जहर घुल जायगा, भावनाओं का गला घुट जायगा। मैं इतना बड़ा पहाड़ अपने सीने पर रख कर जी नहीं सकूँगी।

अरे सम्बन्धों का क्या! आज बिगड़े, कल ठीक।

इतने हल्के स्तर पर मत लो मेरी बात।

नहीं मैं गम्भीर हूँ। प्रगतिशील नारी का कर्तव्य है कि...

तुम्हारे जैसा नाकारा आदमी प्रगतिशीलता की बात करता है, और शर्म भी नहीं आती!पत्नी फिर तैश में आगई।

तुम्हे पैसा चाहिए! एक काम करो, जितना माल और पैसा अब तक तुमने मेरे पिता से लिया है उसका हिसाब कर, दावे की रकम में से घटा दो, फिर हस्ताक्षर कर दूँगी। बाप-बेटी और भाई-बहन के संबंधो को हमेशा के लिये तिलांजलि दे दूँगी।

तुमने यह सब बाकी निकलवा दिया तो फिर बचेगा क्या? अच्छा यह सब छोड़ो, पिताजी से कहकर मुझे यहाँ धन्धा खुलवा दो।

धन्धे के लक्षण होते तो यह नौबत ही क्यों आती! ऐसा करो, मेरा गला  घोंट दो, बच्चों को चम्बल में डुबो दो।फिर एक शादी करना। उसका माल मिले, उससे धन्धा खोल लेना। बस इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकती।

अब वहाँ चुप्पी पसर गई।

 

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खामोशी

 

मैंने साइकिल से अभी एक गाँव ही पार किया था कि अँधेरा हो गया। मुझे दवाई लेकर जल्द ही वापस लौटना है। पिता, मौत और जिन्दगी के बीच में कई दिनों से झूल रहे हैं। पगडंडी पर साइकिल तेजी से भाग रही है, इतनी तो पी.डब्लू.डी. की सड़कों पर भी नहीं भागती। जमीन कड़क और समतल थी।

अँधेरा,सुनसानबियावान, भय अवश्य लगता है। साइकिल और तेज करता हूँ। शरीर पसीने-पसीने हो जाता है। दिनभर की गर्मी अभी तक वातावरण में मौजूद थी। हवा भी गरम थी। मैं बुरी तरह हाँफ जाता हूँ। गला सूख जाता है।

 

मैं अब गाँव के करीब पहुँच जाता हूँ। दो-तीन नीम के पेड़ों के नीचे जाजम पर बैठे कुछ लोग पंचायत कर रहे थे। अवश्य कोई सामाजिक मसला रहा होगा। कुछ बूढ़ों को उत्तेजक अवस्था में देख रहा था। किन्तु इस वक्त मेरी केवल एक चिन्ता थी-प्यास।

 

पानी के दो मटके पेड़ के सहारे रखे हुए थे। मैंने वहाँ  पहुँचकर एक व्यक्ति से पानी पिलाने का आग्रह किया। उसने मेरी तरफ देखकर कुछ अनुमान लगाया फिर बोला, “थे कूंण हाक में हो

म्हूं बामण हूँ। मैंने उत्तर दिया। वह स्तब्ध-सा हाथ में लोटा उठाए रहा। न मटके का ढक्कन खोला न लोटा भरा।

 म्हें मेघवाल हों। बामणों ने पाणी पावै ने कांई नरक में जाणों हैं।

मैं झुँझला उठा। मुझे इस समय पानी से मतलब है,चमार-भंगी से नहीं। मैं कहना चाहता हूँ प्रिय भाई! यह सब दकियानूसी परम्पराएँ है। हम सब समान है। एक ही ईश्वर  की संतान। ये भेदभाव स्वार्थ के मुखौटे हैं, इन्हें तोड़ डालो किन्तु बिना बोले वहाँ से चल दिया। जैसे एक पण्डित ने अपने धर्म, अपनी आत्मा को बचा लिया है।

गले की तकलीफ असह्य हो रही थी। रात के सन्नाटे में अवाले पर जाकर प्यास बुझाई, चोरों की तरह। पेड़ों की परछाइयाँ, चन्द्रमा की चाँदनी में भूत-प्रेत की तरह लग रही थी। हवा सनसना रही थी। एक भयानक खामोशी मुझे अपने में लपेटने को आतुर थी। पाँव पैडल पर तेजी से ऊपर नीचे आ जा रहे थे।

 

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भीख

 

सरकारी अस्पताल का जनरल सर्जिकल वार्ड। करीब पचास बैड। चार-पाँच बीमार फर्श पर भी पड़े हुए हैं। अस्पताल के बाहर कई बीमार इन्तजार में बैठे हैं कि कब बैड खाली हो और कब उनकी बारी आए।  

अक्सर ग्रामीण इलाकों से आए बीमार अस्पताल के बाहर ही दम तोड़ देते  हैं, क्योंकि वे बीमारी का इलाज झाड-फूँक और पूरबजी की पूजा से करते हैं। जब बीमारी लाइलाज हो जाती है, तब अस्पताल की ओर मुँह करते हैं। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।   

अमरिया, आज थारो छोरो नीं आयो।पिता ने पास की खाट पर लेते ग्रामीण बूढ़े किसान से पूछा।   

कांई बताऊँ भाया! पैसा-टका तो फ़ीस और दवाई में खरच व्है ग्या। न गनै गैणा है, न जमीन। ऊपर ती पैली रो उधार!  अबै वणने कुण उधार दैला। रे  साँवला! थारी कांई मरजी है !  

मन छोटो मती करो। साँवालो बैली आवैला। सब ठीक वैला।माँ ने दिलासा दिया। वह चुपचाप बिना पलक झपकाए छत की ओर देखने लगा।   

पिता के चेहरे पर संतोष  तैर गया। कम्पाउण्डर को पाँच रूपए पट्टी के, भंगी को एक बण्डल-माचिस और डाक्टर को भेंट पूजा। यह संतोष, पैसा होने का संतोष है।  मुझे लगा, पैसा ही आदमी को सुरक्षा प्रदान कर सकता है।   

कम्पाउण्डर पिता के पास आता तो बड़ा भला दिखता। पर बूढ़े किसान के पास जाते ही डाँटने लगता। 

बढ़ऊ! शोर क्यों मचा रखा है। यह अस्पताल है अनाथालय नहीं! फोकट की खाने आ जाते हैं। दो टाइम की रोटी तोड़नी हो तो अनाथालय जाओ, समझे!

बूढ़ा दर्द से कराह रहा था। उसे पेशाब भी लगी थी। मगर बर्तन शायद भंगी ने कहीं छिपा दिए थे। मैं उठा और पेशाब का पॉट ढूँढ़ने लगा। ये टॉयलेट के एक कोने में रखे थे। मैं ले आया। और इतने में कम्पाउंडर फिर गरजा, “कल-परसों तक ऑपरेशन नहीं करवाया तो डिस्चार्ज कर देंगे, समझे! जो प्रबन्ध करना है, जल्दी कर लो।  

सुनकर मुझे धक्का लगा। खिड़की के काँच में मुझे मेरा चेहरा विकृत नजर आया।  सोच रहा हूँ, अगर वे पैसे का प्रबन्ध नहीं कर पाए तो इसे डिस्चार्ज कर दिया जायगा। फिर यह बूढ़ा इसी शहर की सड़कों पर भीख माँगता  हुआ, जल्द ही भगवान को प्यारा हो जायगा।

 

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युद्ध

 

अचानक आधी रात को सायरन बजा-ऊँ ऊँ, यूँ यूँ, पूरे देश में खाटों  पर सोये लोग खाटों के नीचे छिप गए, जैसे मौत से मुँह छिपा रहे हैं। भयंकर बम वर्षा हो रही थी। पूरे वातावरण में बमवर्षक विमानों की आवाजें व्याप्त थीं। लोग खंदकों की ओर भाग रहे थे। कुछ लोग बीच में ही पकड़ लिये गए। बाकी खंदकों में छिपे, आकाश के कलेजे को चीरते विमानों की ओर एकटक देख रहे थे। आँखें पथरा गई थीं। गर्दन की माँसपेशियां ऐंठ गई थीं। लोगों ने कहा  –“अब यही देखना तो बाकी था।       

सख्त आदेश थे। दूसरे दिन कहीं भी भीड़ नजर नहीं आई। सड़क, बैंक, सिनेमाघर और बाजार-सभी खाली। सभी संत्रस्त सूखे पत्ते से काँप रहे थे। दुश्मन के सेनापतियों को कैद कर लिया गया था। दुश्मन की सेनाओं में भगदड़ मच गई थी। वे तितर-बितर  होकर अपने ही विरोधियों में मिल गए या रेड्क्रॉस के स्वयं सेवक बन गए। विभीषणों ने अपने विरोधियों के पक्ष में बयान  दिए। वे हवा का रुख पहचानते थे। लोगों ने कहा, “अवसरवादियों की मौज है।   

तीसरे दिन सब कुछ शान्त था। पुलिस और मिलिटरी गश्त लगा रही थी। राष्ट्रद्रोहियों को जगह-जगह पकड़ा जाता। उनकी धुनाई होती। अब पूरी जनता मिलिटरी के साथ थी। द्रोहियों को कुचल दिया गया। लोगों ने कहा- हम बच गए, गनीमत है।     

निर्माण-कार्य पूरे वेग से चलने लगा। असंतोष उत्प्रेरक बन गया। उत्पादन कुलाँचें भरने लगा। अखबार विज्ञापनों से भरे नजर आए, सफलता की प्रशस्तियों से भरे। आलोचना असंवैधानिक हो गई। वे ही सही हैं, क्योंकि उनके अलावा कोई सही हो नहीं सकता। वे निडर हैं, क्योंकि उनके पास पुलिस है, मिलिटरी है, जेल है, संसद है।     

उत्पादन बढ़ने लगा। मुनाफा बढ़ने लगा। मजदूरी, बोनस घटने लगा। पूँजी बढ़ी। नये कारखाने लगे। अर्थव्यवस्था बीमारी के बाद उठी और टहलने लगी। लोगों ने कहा –“इस युद्ध की घोषणा पहले ही हो जानी चाहिए थी। रेलें वक्त पर चलती हैं। कर्मचारी वक्त पर दफ्तर जाते हैं। अब घूस और चोर-बाजारी खुलेआम नहीं चलती।

युद्ध हमें चौकन्ना बना देता है। युद्ध हमें तपा देता है। युद्ध की महिमा ही अपरम्पार है।         

युद्ध आखिर युद्ध है। चाहे एकतरफा युद्ध ही हो।  नुकसान दोनों पक्षों को उठाना पड़ता है। पर इस युद्ध में ऐसा नहीं हुआ। विजय उनकी बपौती थी। किन्तु लड़ाई क्षणिक नहीं हुआ करती, और न  ही एक मोर्चे पर जीतने से युद्ध निर्णायक सिद्ध होता है। जीवन एक निरन्तर द्वंद्व है, निरन्तर युद्ध है। इसमें  कुछ ही युद्ध निर्णायक होते हैं जो जीवन को सम्पूर्ण समग्रता में परिवर्तित कर सकें। पर यह अच्छा हुआ कि चेहरों के नकाब हट गए। हालाँकि भाषा के कारीगर अब भी धुन्ध बनाए रखने में अपना हित समझते हैं।

 

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शिखंडी

 

बचपन से ही उसे बाघड़ का भय था। बाघड़ के अन-अस्तित्व का पता लगने के बावजूद, डर उसके मन और मस्तिष्क में बैठ गया था। अधिकार के प्रतिरूप पिता के चल बसने के बाद वह माँ की आकांक्षाओं का शिकार हो गया।

घड़ी की सूइयों से उसका जीवन बॅंध गया। वह आदेशों की प्रतीक्षा करता रहता और एक सच्चे सैनिक की तरह बिना प्रश्न किए, बिना शंका जाहिर किए, पालन करता रहा। आज्ञापालन अपने-आप में एक सामाजिक मूल्य है। मूल्य मानवता के मापदण्ड हैं।

वह माँ की तरह स्वयं ब्रह्म ज्ञान में संस्कारित हो गया। भटकाव माँ को चाहिए भी था। पूरी पहाड़ जैसी जिन्दगी से निपटना था।

लेकिन वह तो अभी राजमहल के प्रवेशद्वार पर ही था और पता नहीं उसे कितने रहस्य अनावृत करने थे। एडवेंचर उस उम्र का तकाजा होता है।

सिगरेट से आरम्भ कर सिनेमा, जुआ, शराब, औरत, पोर्नोग्राफी,  जासूसी और...

एडवेंचर और नैतिक मूल्यों की ओढ़नी के बीच घर का दम घोंटू-कसैला वातावरण भाभियों की तूतड़ाक, व्यंग्य और उपहास, घृणा और आक्रोश  का शिकार वह।

घर के लोग सीधे-सीधे नहीं लड़ सकते थे। समाज, नैतिकता और आर्थिक अभाव के बीच, चुप-चुप, तनेतने, कटे-कटे घुटते और कभी छापामार युद्ध की तरह झगड़ पड़ते।

तब उसके लिए एक नया ऐडवेंचर प्रारम्भ हुआ-नशा। भाँग, गाँजा और चरस। दिनभर साधुओं और हिप्पियों का संग। हरे रामा! हरे कृष्णा!की आध्यात्मिकता ने इस नये एडवेंचर को जस्टीफाई किया। मगर घर पहुँचते-पहुँचते जस्टीफिकेशन अपराध बोध में बदल जाता।

आत्मविश्वास  और संघर्ष उसके रास्ते नहीं थे। वह पूरी तौर पर घरवालों पर आश्रित था। बहुत बाद उसने स्वीकारा कि वह घर से भाग सकता था। माँ  को झिंझोड़ सकता था, मर्यादाएँ  तोड़ सकता था, बाघड़ का गला घोंट सकता था, अपने पाँवों पर खड़ा हो सकता था, लेकिन...

एक कमजोर खण्डित व्यक्तित्व का दुहरापन, अभिनय कुशलता, ओढ़े हुए जीवन की क्रोधहीनता, जिसे सहनशीलता का अच्छा नाम दिया गया है और बड़बड़ाहट की नपुंसकता। वह दोहरेपन और नपुंसकता से उकता चुका है। उपलब्धि और अनुपलब्धि के अन्तिम छोरों के बीच झूलता हुआ वह जीवन के हर क्षेत्र में शिखंडी सा खड़ा है।

 

मज़बूरी और जरुरत

 

अच्छा यही होगा कि हम एक दूसरे से तलाक ले लें।

क्यों ले लें?” पत्नी चीखी।

क्योंकि अब तुम मेरे मामलों में टाँग अड़ा रही हो।

यानी तुम इधर-उधर मुँह मारते रहो और मैं चुप रहूँ!

हाँ, अब मैं तुम जैसी बदसूरत और सड़ियल औरत को बर्दाश्त नहीं कर सकता।

आज मैं बदसूरत नजर आ रही हूँ और उस वक्त ..?”  वह रुआँसी हो गई।

शादी करना मेरी मजबूरी थी।

मजबूरी! कैसी मजबूरी थी?”

तुम्हारे पिताजी के पास पैसे थे और मुझे उनकी जरुरत थी। आज मेरी अपनी कंस्ट्रक्शन कंपनी है।

बच्चे पैदा करना भी मजबूरी थी?”

मजबूरी नहीं तो और क्या! गले पड़ा ढोल तो बजाना ही पड़ता है।

लुच्चे कहीं के!वह पूरी ताकत के साथ चीखी।

गाली बकती है राँड!उसने एक भरपूर लात उसके कूल्हों पर लगाई और घर से बाहर निकल गया।

उसकी तमाम हड्डियाँ चरमराने लगी। एक असह्य वेदना के साथ ही वह फफक-फफककर रो पड़ी।

 

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लोमड़ी

 

जब तक उस जंगल में दासप्रथा थी, नागारिकजन शान्ति की जिन्दगी बसर कर रहे थे। सामाजिकराजनैतिक हैसियत के हिसाब से हरेक के पास दासों की संख्या थी। जागीर थी। शेर, चीते और भेड़िए अपनीअपनी खोहों में रंगरेलियाँ मनाते। शिकार के लिए जाना उनके लिए बेइज्जती की बात थी।

एकाएक स्वतंत्रता की जबरदस्त  आँधी आई। पुरानी परम्पराएँ उड़न तश्तरियों की तरह गायब हो गयी। अब चुनाव में मच्छर, मेंढक और झींगुर जीतने  लगे, जो ज्यादा भन्ना सकते थे, टर्रा सकते थे।

एक बार लोमड़ी चुनाव में जीत गई। अंगूर खट्टे नहीं रहे। मीठे अंगूर खाने लगी तो खाती ही रही। दूसरे जानवर बोले, “हमें भी अंगूर खाने का अधिकार है, जनतंत्र में सभी समान है।वह नहीं मानी। वे तुल गए असहयोग पर।

मामला पंचायत को सिपुर्द हुआ। पंचायत ने निर्णय दिया कि लोमड़ी ने अंगूरों पर एकाधिकार कर लिया है और समानता के सिद्धांत की अवमानना की है, अत:उसे लोकतंत्र की परम्परा का निर्वाह करते हुए पद त्याग कर देना चाहिए।

लेकिन लोमड़ी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थी। उसने संसद की बैठक बुलाई और पिछली तारीख से पंचायतों के अधिकारों को सीमित कर दिया।

 

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